यायावर

अरे यायावर !
यह क्या ?
कैसी राह पकड़ी
कि -
अबाध गति से प्रवाहित
पहाड़ी नदी की
खुली, पारदर्शी
छाती को छोड़
अथाह गहराई वाले
अरब सागर के
इस महा जलकुंड की
छाती पर
डोलती, डगमगाती
अग्निवोट
की खर- खर
स्वर लहरी के संग
खारे छींटों को
लूणी पवन के
रूमाल से पौंछते
अंतर के
सुप्त भावों को
अंदोलित करने की सोची !
(अपने छात्र काल के दौरान सत्तर के दशक के
शुरूआती वर्ष में कुल्लू से मुंबई की प्रथम यात्रा के अवसर का भाव चित्रण)
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