कभी वो भी दिन थे
जब मुझे भी
इच्छा होती थी
मेरे पास भी
पैसा हो, चीज़ें हों, सुविधाएँ हों
जब इच्छा पूरी न हो तो
मुझे भी क्रोध आता था
अपने भाग्य पर
यदि थोड़ा कुछ पा लेता
तो फ़िर संतुष्टि तो होती थी
परन्तु लालच फ़िर भी
मुझमे गया नहीं था
पायी हुई चीज़ों को
चाहे थोड़ी ही क्योँ न हों
न खोने का भय
यानि मोह मुझे भी होता था
और कभी कभी मुझमे
यह विचार भी आता था कि
मैं तो गांव में
औरों से कहीं अधिक
ज़मीन जायदाद का वारिस हूँ
जीवन के इन ख्यालों के बीच
प्रश्नों की तीव्रता से उपजे
अवसाद का उत्तर मैंने
कष्टमयी यथार्थ जीकर दिया था
फ़िर अभी भी
उन तमाम अनबुझे प्रश्नों का उत्तर
मुझे नहीं मिल पाया था
एक दिन अचानक
पता नहीं कैसे
मेरे अपने भीतर से ही
किसी ने मुझे
मेरे तमाम प्रश्नों के
उत्तर दे दिए
और अब प्रश्न नहीं
मेरे पास केवल
उत्तर ही रह गए हैं
और उत्तर भी क्या
केवल यह अहसास कि
अब मैं वह नहीं हूँ
मुझे तो बस
चलते जाना है
कुछ करते जाना है
अपना वह कर्म
जिसमे मैं नहीं होता
मेरा उतना और वही
वजूद होता है जो
कुदरती होता है
आपकी रचना मुझे अच्छी लगी|
जवाब देंहटाएं