निश्चेष्ट छपाक......गुढुप..गुढुप...वह मर ‘रही’ है, मर ‘रहा’ है.....नहीं-नहीं मर ‘रही’ है...!! बचाओ उसे, वह अब नहीं बच ‘पाएगी’.....नहीं-नहीं....श्श्श्श्श्श्श्श्श्श्श्श्........................!!!
उसने पानी की पतली चादर ओढ़ ली और वह उसमें घुल गई। आखिर किसी ने तो उसे अपनाया...!!
कुछ दिनों पहले हर दिन की तरह तोज़ी अपने कमरे की खिड़की की मुडेर पर बैठी सोच रही थी। क्या.....? बस बना रही थी अनगढ़ सूरत अपनी आँखों में, वह सूरत जिसकी आँखों की दरारों में लाल रंग का दर्द उभर आया था। वह सलाखों के पीछे से झाँक रही थी अतीत को....हर दिन वह बैठी-बैठी दो आँखें, नाक-कान को बनाती-बिगाड़ती रहती।
“ए, क्या सोच रही है रानी! क्यों रोज़ दिमाग को खराब करती रहती है”...जमिला ने कहा। वह अपने पलंग पर लेटी थी। नींद आँखों पर चढ़ उसकी जबान को कस रही थी।
“आधी-अधूरी बातें दिमाग से निकाल दे”
“तू सो जा ना। मेरा मन नहीं है” – रोज़ी ने कहा।
“जब देखो तब रातभर जागती रहती है” – एक करवट के साथ यह कचकचाहट शांत हो गई। रोज़ी अपनी ज़िन्दगी की तरह अपने आँचल को भी मुँह में लेकर फाड़ने लगी। जमीला के करवट लेते ही तनहाई उसमें दुबारा जा सिमटी।
दिन निकला और उसकी आँखों में रात निकल आई। जमिला ने दोपहर में रोज़ी को आकर खबर दी कि गुरु माँ आई हैं। गुरु माँ ने ही ‘उन सबको’ पाला था, सिखाया था और इस ‘रूप’ के लायक बनाया भी था। आज उनकी उम्र हो चली है। उम्र पक गई लेकिन जवान अभी भी लहराते हुए चलती हैं। उनकी तबीयत खराब है। चंद सांसें बची हैं खर्चने को।
रोज़ी गुरु के पास बैठी थी, आँखें पकड़े थी ‘एक’ ही सवाल, ‘वह कौन है? क्या है?’ यह रोज़ी जानती थी। समाज के हाशिए के बाद जो भी कुछ खाली बचता है वह ‘इनके’ नसीब में था। न पुरुष, न महिला। मतलब न प्रश्नचिह्न, न पूर्णविराम। बस ‘................’ ही उनकी ज़िन्दगी है। उसके लिए ज़रूरी था ‘वह कहाँ से है’ मतलब अतीत।
चंद साँसें बचीं थीं गुरु माँ के पास, आखिरी की साँस में कह गई ‘उसकी’ कहानी। ‘ठाकुर का घर, रुँआसीं आँखें, लाल खिड़की’। अधूरी कहानी में तड़प होती है, वह पूरी हो जाए तो उलझन – ऐसा क्यों हुआ?
ठाकुर दादा बना है, पोता हुआ है उसे। आज ठाकुर के यहाँ ‘इन’ सबको बधाई देने जाना है। आज रोज़ी तबीयत से तैयार हुई है। सुर्ख़ लाल लग रही है। आँखों में चमक और ज़बान पर तूफान है।
गेट पर चौकीदार टोकता है – “कहाँ जा रही हो? अन्दर पार्टी चल रही है, बाद में आना”
“हम कभी बुलाने पर आते हैं? हम तो बिन बुलाए ही आते हैं और जाते हैं” – सच था सब जो उसने कहा था, वह जान गई थी यह, पर समाज अनजान ही रहा और रहेगा।
“ठहरो, बड़े साहब को बुलाता हूँ” – कहकर चौकीदार बड़े से घर का उससे भी बड़ा दरवाज़ा बन्द करके चला गया।
काफी देर तक दरवाज़ा नहीं खोला गया तो ‘उन’ सबने दरवाज़ा पीटना शुरु कर दिया। चौकीदार ने थोड़ा दरवाज़ा खोलकर उन्हें समझाने का प्रयास किया परंतु ‘वह’ सब जबरन अन्दर आ गईं।
बड़ा सा लॉन, साथ में खड़ी 3-4 गाड़ियाँ, घर में लगीं लाल-लाल बड़ी सी खिड़कियाँ। लॉन में 100-150 लोगों की भीड़ – रंग-रंगीली – साज-सजीली। एक आदमी लोगों के बीच से भागते हुए आया। साथ में दूसरा आदमी, शायद नौकर।
“तुमलोग अन्दर कैसे आए?”
“आप....कौन?” – वह बोली।
“ठाकुर....सिंह”
ख़ामोश शोले भड़कने लगे, “बधाई ले ले ठाकुर, पोता हुआ है, राजा बनेगा”
उसकी ज़बान नुकीली हो ख़ुद को ही काट रही थी।
“कितने पैसे चाहिए, शर्मा जी इन्हें पैसे दे दो” – और जाने को कहा।
ठाकुर ने उसके गाल पर तिल देखा, उतना ही बड़ा था जितना कि बीस साल पहले उस बच्चे का था।
“पहले बच्चा तो दिखा, उस चांद के मुखड़े को देखे बिना जाने से रहे हमलोग” – जमिला हैरान थी। आज रोज़ी को क्या हो गया है, मोटे पैसे मिल रहे हैं, लेकर चलती क्यों नहीं, अन्दर क्यों जा रही है?
ठाकुर ने रोज़ी को रोकना चाहा, मगर अब वह चल सकती थी। पहले की तरह नहीं थी। अब ठाकुर चुपचाप अन्धेरे में उसे गुरु माँ को नहीं सौंप सकता था, यह कहकर कि इसको हमसे दूर रखो, चाहे तो मार दो।
ठाकुर ने छीना था उसे ठकुरानी की गोद से। उसी दिन से ठकुरानी की आँखों में दरारें थीं, खून की। माँ थी न.....वह उसे जब छूती थी तो वो उसकी अंगुली पकड़ लेता था। छुअन पर मुस्कुराहट और मुस्कुराहट पर गुदगुदी – माँ-बच्चे का नैसर्गिक वार्तालाप।
अन्दर हॉल में ठकुरानी की गोद में बच्चा था और था महिलाओं का जमघट। ठकुरानी ठिठकी सी बैठी रही। रोज़ी ने आगे बढ़कर उनके हाथ को हटाकर बच्चे को छुआ। ठकुरानी को छुअन झकझोर गई। आँखें मिलीं और पथरा गईं।
ठाकुर चिल्लाते हुए अन्दर आया – “तुम सबलोग बाह्र जाओ अभी!”
“आज ऐसे नहीं जाऊँगा मैं, जिस चीज़ के लिए आए हैं वो तो करें”
रोज़ी ने गाना शुरु किया – ठकुरानी ठाकुर की निगाह की नोंक पर उठकर सिसकी को घोंटकर ऊपर की मंज़िल की खिड़की से झाँकने लगी। आज ठाकुर बीच में खड़ा था और रोज़ी और ‘वह’ सब गोल-गोल नाचते-गाते हुए चारों ओर अपने होने का अहसास दिला एअही थीं। समाज को बीच में खड़ा करके उसे अपनी दरिन्दगी दिखाए बिना समाज अपने आईने में नहीं झँकता।
रोज़ी नाची, उसे पता नहीं उसके बाल, कपड़े कहाँ हैं। एक पागलपन है, एक चीख है जो अपने को खाली कर रही है, बस फिर क्या था, ठाकुर के घर से आने के बाद रोज़ी.......................!!!नाम: दीप्ति आनन्द
जन्म: 11 जुलाई 1982
शिक्षा: एम.ए. (हिन्दी), दिल्ली विश्वविद्यालय, डिप्लोमा (अनुवाद, अंग्रेज़ी-हिंदी),
दिल्ली विश्वविद्यालय।
कार्यरत: अनुवादक।
संपर्क:
दीप्ति आनन्द
सी – 23, एक्स 1, दिलशाद गार्डन
नई दिल्ली - 95
फोन नंबर – 09971921780
मार्मिक....
जवाब देंहटाएंAMAZING STORY DIPTI JI.KEEP IT UP
जवाब देंहटाएंDEEPAK SHARMA "KULUVI"(DELHI)
09136211486