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लघुकथा - बेबसी
Posted by रतन चंद 'रत्नेश'
Posted on रविवार, मई 30, 2010
with 6 comments
अंतत: दोनों भाइयों ने बस में पांच सीटें बुक कराई! सबसे पीछे की । दो अपने लिए और तीन मां ·के लिए। मां बहुत बीमार थी। वह लेट कर ही वापस गांव जा सकती थी। डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था और साथ ही यह भी कहा कि घर पर ही जितनी सेवा हो सकती है, करो।
बड़ा भाई दिल्ली में ही काम करता था। उसके पास जो कुछ जमा-पूंजी थी, मां के इलाज में खप गई। पैसे होते, तो वह मां को किसी टेक्सी में ले जाता।
दोनों बेटों के बीच मां आंखे मूंदे सो रही थी। बस ने आधे से अधिक फासला तय कर लिया था। तीन सीटों की टिकट लेने के कारण खड़े रहने को विवश किसी यात्री से तकरार भी नहीं हुई। कंडक्टर भी उनके ही इलाके का था। उसी ने सलाह दी थी कि इसी तरह बीमार मां गांव पहुंच सकती है, वरना रास्ते में सवारियां हील-हुज्जत करेगी।
अचानक मां की देह में जुंबिश हुई और उसके प्राण पखेरू उड़ गए। पिछली सीट पर बैठे दोनो भाइयों ने एक दूसरे की ओर कातर निगाह से देखा। बड़े भाई ने अपने होठों पर उंगली रखकर छोटे को चुप रहने का इशारा किया। छोटे भाई की आंखों में आंसू तैरने लगे । उसका जी कर रहा था कि मां की मौत पर दहाड़ मार-मार कर रोए, पर परिस्थिति को समझ कर वह घुटा-घुटा आंसू बहाता रहा और थोड़ी देर में चुप हो गया।
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6 comments:
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badi hi bhavuk par khamoshi ka matlab na samajh paya...
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक.....वैसे ऐसा ही सच एक बार हो चुका है...उस माँ के साथ उसका इकलौता बेटा था...और बस में ही माँ के प्राण पखेरू उड़ गए थे...क्या बीती होगी उस पर?
जवाब देंहटाएंओह! बहुत मार्मिक!
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक. पढते पढते धुंधला सा दिखाई देने लगा.
जवाब देंहटाएंरत्नेश जी आपकी लघुकथा बहुत अच्छी लगी.. आजकल मैं भी इसी तरह की एक सीरीज चला रहा हूँ, निवेदन है कि मेरी लघुकथाओं को देख मार्गदर्शन करें..
जवाब देंहटाएंAApki kavita bhut achchi lagi. Mubark ho.
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